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हरिशंकर परसाई के साहित्य में यथार्थवादी चेतना | Original Article

प्रो. संगीता पाठक in Shodhaytan (RNTUJ-STN) | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

लगभग  सम्पूर्ण साहित्य में परसाई जी का परिवेश व स्वयं परसाई जी एक विषय के रूप में छाये दिखते है | परसाई का अधिकांश लेखन, आत्मकथात्मक माना जाता है | साहित्यकार परसाई के निर्माण में व्यक्ति परसाई की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता | परसाई जी के साथ व्यक्तित्व और साहित्य निर्माण में उनकी यथार्थ चेतना के योग की उपस्थिति आरम्भ से ही रही | देशकाल के संदर्भ में यदि हम परसाई के भीतर पल-बढ़ रहे सचेत और जाग्रत रचनाकार पर दृष्टि डालें तो पाऐंगे की उस समय का देशकाल परिवेश संक्रमण के काल से गुजर रहा था | तत्कालीन परिस्थितियों में स्वतंत्रता की आकांछा और उसके बाद के मोहभंग में परसाई की यथार्थ चेतना और रचनाकार के आकार लिया | पाँचवे-‘छठे दशक की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ, परिवेश की दृष्टि का विकास कर रहे थे | इन सबके बीच विशद् अधयन्न और आसपास के सम्पर्क से परसाई जी का मार्क्सवाद के प्रति जो झुकाव उभरा तो वह सन् 1960 तक आते-आते पुख्ता हो गया | परसाई कहते हैं जो यथार्थ जिस रूप में इन्होंने पाया, उसे उसी रूप में ईमानदारी से साहित्य में प्रस्तुत कर दिया | किसी प्रकार की कोई बनावट नहीं, सजावट नहीं और न ही दुराव छिपाव | अच्छा-बुरा सब ये बेहद निस्संग होकर अपने साहित्य में शामिल करते है | सबसे खास बात ये कि इन सबके बीच ये पाठक के समक्ष किसी आदर्श या यूरोपिया का जाल भी नहीं बुनते |