वर्तमान परिपेक्ष्य में संत कबीर की समाजचेला भूमिका | Original Article
वैश्वीकरण के इस युग में भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही है। सभ्यताओं और सांस्कृतियों का तेजी से समिश्रण हो रहा है। संस्कारों की जडें गाहे बगाहे हिलती सी नजर आती है। कहीं पश्चिमी सभ्यता हावी होते नजर आती है। कहीं व्यक्तिगत स्वार्थ आने पैर पसारता नजर आता है। कहीं धर्म देंगे करवाता है तो कहीं क्षेत्रवाद बलवती हो जाता कहीं कही महिलाओं की अस्मिता दांव पर लगती हैं तो कही गरीबों के भूखे पेट सिसकते है। कुल मिला कर कहें तो यह परिवर्तन की क्रांति काल चल रहा है। ऐसे में जरूरत है हमारी प्राचीन गोरवशाली संस्कृति के मंथन की संतो की सीख की और संत साहित्य के पुनः अवलोकन की। वर्तमान समय में एंसा नहीं है कि हमने वैज्ञानिक या वैचारिक यात्रा नहीं की निश्चय ही तरक्की के बहुत से सोपान हमने तय किये है किन्तु कुछ मूलभूत सिंद्धातों आदर्शो सोच को हम कही पीछे छोड आए है। ऐसे में तारणहार के रूप में सहज ही संत कति कबीर का स्मरण हो आना स्वाभविक है। संत कबीर भक्ति काल के केश्वरवादी, मानवतावादी तथा प्ररवर समाज सुधारक कति थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तो उन्हें समन्वयवादी कति मानते थे। वस्तुतः व्यक्ति सामाजिक परिस्थितियों की उपज होता है। कबीर जिस मध्यकाल में हुए थे वह उतृश्रृंखलता का समय था। समाज में जाति पॉति भेदभाव, छुआछुत धार्मिक आडबंरां एंव पाखंडों का बोलबला था। सामंतवादी समाज का विकृत रूप समाज को खाये जा रहा था। इस परिवेश में कबीर ने मानव प्रेम के जिस उदात्त भाव का संदेश दिया, वह आज भी प्रासांगिक है।