इक्कीसवीं सदी में रंगकर्म तथा स्त्री विमर्श | Original Article
भारत में रंगकर्म की अत्यन्त प्राचीन और समृद्ध परम्परा रही हैA रंगकर्म यथार्थ या अतियथार्थ, कल्पना या अतिकल्पना के माध्यम से मंच पर ज्ञात-अज्ञात लोक को साकार करने डीके रचनात्मक प्रयत्न करता रहा है | रंगकर्म में समय-समय पर अपेक्षित परिवर्तन भी आए, परन्तु इसकी परम्परा की जड़े गहराई तक फैली होने के कारण इसके अस्तित्व पर आँच नहीं आई | समाज में जब-जब अतिवादी स्वर प्रबल हुआ, रंगकर्म के विद्रोह रूप में अपना स्वर प्रबल किया है | रंगकर्म के भारतेन्दु युग तथा प्रसाद युग में राष्ट्रवादी स्वर प्रबल था | पारसी रंगमंच ने शुद्ध मनोरंजन का रुख किया व साथ-साथ लोक रूचि को भी जाग्रत किया | नुक्कड़ नाटकों ने सामाजिक क्रांति का स्वर प्रबल किया | सफ़दर हाशमी साहब इस लोक क्रांति की भेंट तक चढ़ गये | वर्तमान में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यंग्य विद्रुपताएँ, मुद्दे सभी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में रंगकर्म समाज में परोस रहा है | इन सब बातों को जानते-समझते हुए एक प्रश्न कोंधता है की रंगकर्म में महिलापात्रों की क्या स्थिति है? महिला पात्रों को रंगकर्म में यथोचित स्थान, मान सम्मान मिलता है? या व हाशिये की गतिविधि मात्र बन जाती है? हिन्दी भाषी, गैर हिन्दी भाषी देश की तमाम रंग संस्थानों के सूत्रधार से लेकर निर्देशकों तक में प्रचारित प्रसारित नामों में पुरुष पात्रों की भूमिका ही सामने आयी महिला पात्रों की नहीं | ऐसा संभवत इसलिए है की सामाजिक परिवर्तनों के साथ साहित्य में तो परिवर्तन आया है किन्तु रंगकर्म में इसको गति बहुत धीमी रही | पारिवारिक कलह, साथी से असंतोष, आर्थिक अस्थिरता, सामाजिक स्वीकारोक्ति का अभाव, प्रदर्शनकारी कला रंगकर्म के प्रति हिन्दी भाषी छेत्रों की संकुचित सोच, पुरुष की अहमवादी प्रवत्ति आदि ने आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी रंगकर्म से स्त्रियों को समुचित तारतम्य बनाने नहीं दिया है | हाँ यह अवश्य अच्छा लक्षण है की शौकिया रंगकर्म में स्त्री रंग कर्मियों की संख्या बढ़ी है | संभवत: सदी के अंत तक स्थितियाँ अधिक अनुकूल, आशावादी व सहयोगी हो, ऐसे संकेत महिला रंगकर्म को लेकर मिल रहे है, जो स्वस्थ परिवर्तन के परिचायक हैं |