बड़बोलेपन से मुक्त है, संतोष चौबे की काव्य चेतना | Original Article
आमजन की यथार्थमय भावयुक्त चेतना से तात्पर्य उन रचनाओं से है जो सामाजिक जन के हृदय को समझे, उसे वास्तविक स्थिति से अवगत कराये और उसे प्रेरित करे | इस भावना को गति देने के आशय से सन् 1936 में मुंशी प्रेमचन्द के सभापतित्व में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन से यह भाव एक विशेष रूप में, विश्व साहित्य के नए विचारों के सन्दर्भ में ‘प्रगतिवाद’ के नाम से शुरू हुआ | इसकी मूल शुरुआत भले ही सन् 1917 की रुसी क्रान्ति से मान्य हुई हो, परन्तु इसकी पृष्ठभूमि में इसकी चिन्तन सरणी नयेपन, नये सामाजिक यथार्थ भाव में रही है | संतोष चौबे की रचनायें इसी सामाजिक यथार्थ की सूचक हैं | श्री चौबे का रचना सृजन इन्ही काव्य सिद्धान्तों और मान्यताओं से सम्बद्ध हैं जिसे उन्होंने समझा और जिया, फिर रचनायें रची | यही मुख्य भाव संतोष चौबे की रचनाओं के मुख्य लेखन एवं चिंतन के पक्ष हैं | अतः “प्रभू मूरत देखी तिन्ह तैसी” भाव के अनुरूप कवियों में यथार्थवाद अनेक रूपों में दर्शित है, जैसे-यथार्थवाद, विशुद्ध-यथार्थवाद, सामाजवादी-यथार्थवा, आदर्शोन्मुखी-यथार्थवाद, प्रगतिवादी-यथार्थवाद, जनवादी-यथार्थवाद, अति-यथार्थवाद, प्रगतिवाद आदि | इन सबका मिला जुला विशेष रूप प्रगतिशील काव्य धारा है | संतोष चौबे की रचनायें इनमें से किस वाद अथवा धारा की पक्षधर और मान्यताये लिए हुए है, यह विचारणीय है | अंत में कवि संतोष चौबे के शब्दों में – “मगर एक बात है/ आदमी अच्छे हैं/ कभी-कभी लगता है सच्चे है |”