नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में स्त्री पात्र ‘अंबिका और मल्लिका’ की प्रासंगिकता | Original Article
सारांश
एक सीमित दायरे में ही अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देने वाली नारियों के हक में विमर्श और विचार खड़ा करने वाली महिलाओं ने जब-जब कोई कदम उठाया है उन्हें कदम-कदम पर विभिन्न अवरोधों से संघर्ष करना पड़ा है। इन महिलाओं द्वारा किया गया या किया जाने वाला संघर्ष कई स्तरों में दिखाई देता है। प्राथमिक स्तर पर जो सबसे प्राथमिक संघर्ष होता है वह पारिवारिक ही होता है अगर ध्यान दिया जाये तो इसके भी अनेक स्तर दिखाई देते हैं। उसके बाद संघर्ष का यह दायरा आर्थिक और फिर बढ़ते-बढ़ते सामाजिक, राजनितिक, संस्कृति स्तर तक विस्तृत हो जाता है। विश्व इतिहास के साथ-साथ भारतीय इतिहास में भी इस तरह के महिलाओं के संघर्ष को दर्ज किया गया है। इसके अलावा समय-समय पर साहित्यकारों-कलाकारों ने भी अपनी कृतियों में इस तरह के संघर्ष करने वाली काल्पनिक पात्रों का सृजन कर अपनी रचनाओं में स्थान दिया और इस बहाने से अपने समय के समाज को एक यथार्थ दिखाने का प्रयास किया है। कुछ ऐसा ही कार्य हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार मोहन राकेश ने भी अपनी नाट्यकृति ‘आषाढ़ का एक दिन’ के माध्यम से किया है।